अदल बदल भाग - 20

अदल-बदल

दुर्भाग्य एक अपरिसीम और अर्पाप्त वस्तु है। वह मनुष्य के जीवन का बहीखाता है। उस बाहीखाते में मनुष्य के जीवन के पुण्य ही नहीं, चरित्र-दौर्बल्य और कुत्सा का एवं मानसिक कलुष का लेखा-जोखा आना-पाई तक हिसाब करके ठीक-ठीक लिखा जाता रहता है। लोग कहते तो यह हैं कि यह दुर्भाग्य मनुष्य पर लादा गया बोझ है। परन्तु सच पूछा जाए तो यह मनुष्य की पाप की कमाई की पूंजी ही है। पाप के विषय में भी एक बात कहूं, लोग पाप की गठरी को बहुत भारी बताते हैं। मेरी राय इससे बिल्कुल ही दूसरी है। वह न तो उतनी भारी ही है जिसे लादने को कुली या छकड़ा गाड़ी की आवश्यकता है, न वह---जैसा कि लोग कहते हैं---ऐसी ही है कि जो केवल मरने के बाद परलोक में ही खोली जाएगी, मरने तक उसे मनुष्य लादे फिरेगा। वह तो शरीर में हाथ-पैरों के बोझ के समान है जिसे आदमी बड़े चाव से लादे फिरता है, और कभी उकताता नहीं है। वह चाहे जब उसकी एक चुटकी का स्वाद ले लेता है और उसके तीखे और कड़वे स्वाद पर उसी तरह लटू है, जैसे एक अन्य नशे-पानी की चीजों के कुस्वाद पर। नशे-पानी की चीजों से पाप में केवल इतना ही अन्तर है कि नशे-पानी की चीजें महंगे मोल बिकती हैं, परन्तु पाप मनुष्य के जीवन के चारों ओर बिखरा पड़ा है और उसे जितना वह चाहे बटोरकर अपने कन्धों पर लाद लेने से रोकने के लिए कोई मनाही नहीं है। उस पर कोई चौकीदार-सिपाही पहरा नहीं दे रहा है। वह हवा-पानी से भी अधिक सस्ता और सुलभ है। इसीसे मानव स्वच्छ भाव से युग-युग के उसके सेवन का अभ्यासी रहा है। यह भी सत्य है कि पत्नी का पाप पति का दुर्भाग्य हो जाता है, और पति का पाप पत्नी का दुर्भाग्य होता है। इन्द्रियों की भूख की ज्वाला इधर-उधर देखने ही नहीं देती। जो सुविधा से मिला, उसे खाया। पाप का व्यवसाय ही हिंस्र है, वहां कोमल भावुक जीवन कहां? स्त्रियों का सौभाग्य-दुर्भाग्य पुरुषों के सौभाग्य-दुर्भाग्य के समान क्षण में बदलने वाला नहीं।

तीन वर्ष बीत गए।

आंधी शान्त हो चुकी थी। मुर्झाए हुए पत्ते बिखर गए थे। डाक्टर का प्रेमभाव अब गायब था। अब वे उसे पूर्व की भांति क्लब में ले जाने में आना-कानी करते थे। उनका यह विवाह प्रेमजन्य नहीं, वासनामूलक था। माया का सारा ही मान बिखर चुका था। वह जो सुखी संसार देखना चाहती थी, वह उससे दिन-दिन दूर होता जा रहा था। वहां अब वेदना और सूनापन था।

उसे एक दिन अचानक ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने जो लिया है उसका भार कुछ बढ़ रहा है। थोड़े दिनों में संदेह मिट गया। उसने जो दिया था, वह सब बट्टेखाते गया, और उसने जो लिया उसके भार से वह एक दिन अधमरी हो गई।

उसने डाक्टर से कहा-

'यह बोझ बढ़ता ही जा रहा है। यह तुम्हारा प्रेमोपहार है।'

डाक्टर ने सिगरेट के धुएं का बादल बनाते हुए कहा-'चिन्ता न करो, चुटकी बजाते इस बोझ को कहीं कूड़े के ढेर में फेंक दिया जाएगा।'

पर बोझ उसे ढोना पड़ा। कूड़े के ढेर में नहीं फेंका गया। वह उसे ढोते-ढोते थक गई, पीली पड़ गई, कमजोर हो गई।

डाक्टर से जब बोझे की बात चलती, वह झुंझला उठता, खीझ उठता, डांट भी देता। उसे रोना पड़ा-पहले छिपकर, फिर सिसक-सिसककर।

पश्चात्ताप तो उसे उसी क्षण से होने लगा था, जब डाक्टर ने बेमन से विवाह की स्वीकृति मालतीदेवी के सामने दी थी। अब उसका ध्यान रह-रहकर अपने सौम्य स्वभाव मास्टर साहब के मृदुल और अक्रोध स्वभाव पर जाता था। उसे बोध होने लगा कि मैंने अपनी मूर्खता से अपने लिए दुर्भाग्य बुलाया।

एक दिन उसे प्रतीत हुआ कि डाक्टर उसे कुछ खाने की दवा देने वाले हैं। वह संदेह और भय से कांप उठी। उसे अपने प्राणनाश की भी चिन्ता उत्पन्न हो उठी। शाम को डाक्टर जब क्लब चले गए, उसने आत्मविश्वास पूरक साहस किया, और उस पर-घर को त्यागने की तैयारी की। उसने चादर ओढ़ी और शरीर को सावधानी से आच्छादित कर घर से बाहर हो गई।

दीवाली के दीये घरों में जल रहे थे, पर वह उनके प्रकाश से बचती हुई अंधकार में चलती ही गई।

जारी है

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